धाम यात्रा

जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा – विश्‍व की सबसे विशाल वार्षिक रथयात्रा

जगन्नाथ धाम का मुख्य आकर्षण भगवान जगन्नाथजी की रथयात्रा है हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होने वाली विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा में भाग लेने के लिए देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु भक्त पुरी पहुंचते हैं। रथयात्रा में मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा अलग अलग तीन भव्य एवं सुसज्जित रथों पर विराजमान होकर यात्रा पर निकलते हैं।

पूरी के मुखिया सोने की झाड़ू लेकर आगे मार्ग को साफ करते हुए चलते हैं। जिसे छेरा पैररन कहते हैं। लगभग 4000 श्रद्धालु भक्तगण नगाड़ों, तुरही शंखध्वनि जयकारों और भजनों की गूँज के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है, वह महाभाग्यवान माना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, रथ खींचने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है। शायद यही बात भक्तों में उत्साह, उमंग और अपार श्रद्धा का संचार करती है। यात्रा में सबसे आगे बलरामजी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्राजी का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है,इसे उनके रंग और ऊंचाई से पहचाना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर पुरी नगर से गुजरती हुई निकलती है।

मौसी के गुंडिचा मंदिर में सात दिन विश्राम

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को ही लगभग तीन किलोमीटर की दूरी तयकर शाम तक रथ’ रानी गुंडिचा के मंदिर पोहचता हैं। गुंडीचा मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी। इसके बाद दूसरे दिन रथ पर रखी जगन्नाथ जी, बलराम जी और सुभद्रा जी की मूर्तियों को विधि पूर्वक उतार कर मौसी के मंदिर में लाया जाता हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को ‘आड़प-दर्शन’ कहा जाता है। यहां सात दिन विश्राम करने के बाद 8 वे दिन आषाढ़ शुक्ल दशमी को सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं।

वापसी की यात्रा भी उसी धूमधाम से की जाती है।भगवान जगन्नाथ जी बलभद्र एवं सुभद्रा को पुनः रथ पर बैठाकर वापस जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है। इसे उल्टा रथ कहा जाता है इस दौरान भक्तगण उपवास रखकर रथ के रस्सों को खींचते हैं। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुन: गर्भ गृह में स्थापित कर दिया जाता है।

गुंडिचा मंदिर की पौराणिक मान्यता

जिस जगह पर आज यह मंदिर है यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था। यह भी कहा जाता हैं। कि देवी लक्ष्मी, पंचमी तिथि को यानी रथयात्रा के तीसरे दिन भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और ‘हेरा गोहिरी साही पुरी’ नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं।बाद में भगवान जगन्नाथ द्वारा रुष्ट देवी लक्ष्मी मनाने की परंपरा भी है। यह मान-मनौवल संवादों के माध्यम से आयोजित किया जाता है, जो एक अद्भुत भक्ति रस उत्पन्न करती है।

रथ निर्माण

इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या कांटे या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। वैशाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को रथ निर्माण प्राचीन परम्परा के अनुसार प्रारम्भ किया जाता है | रथयात्रा के लिए जिन रथों का निर्माण किया जाता है उनमें किसी तरह की धातु का इस्तेमाल भी नहीं होता,ये सभी रथ नीम की पवित्र और परिपक्व काष्ठ (लकड़ियों) से बनाये जाते है, जिसे ‘दारु’ कहते हैंइसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान की जाती है, जिसके लिए जगन्नाथ मंदिर एक खास समिति का गठन करती है।। रथों के लिए काष्ठ का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है। जगन्नाथजी का रथ सोलह पहियों का होता है। जिसमें 832 लकड़ी के टुकड़े का प्रयोग किया जाता है।

भगवान जगन्नाथ, का रथ ‘नंदीघोष या गरुड़ध्वज’, ऊंचाई 45.6 फीट हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है। बलभद्र, का रथ ‘तलध्वज’ ऊंचाई 45 फीट हैं। जिसका रंग लाल और हरा होता है।’देवी सुभद्रा, का रथ ‘दर्पदलन या पद्मरथ’, ऊंचाई 44.6 फीट ऊंचा होता है। जो काले या नीले और लाल रंग का होता हैं। तीनों रथ निर्माण के पश्चात ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को बाहर लायी गई मूर्तियों को 108 घड़ों के जल से स्नान कराया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस स्नान से भगवान जगन्नाथजी को सर्दी जुकाम हो जाता है जिसका विधिवत 15 दिन तक इलाज होता है और वे स्वस्थ हो जाते हैं। महोत्सव के शुभारम्भ के लिए’छर पहनरा’ नामक अनुष्ठान किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और ‘सोने की झाड़ू’ से रथ मण्डप और रास्ते को साफ़ करते हैं।
प्रत्येक वर्ष रथयात्रा के पश्चात इन रथों को नष्ट कर दिया जाता है और अगले वर्ष नए रथ तैयार किये जाते हैं।

रथयात्रा का इतिहास

पौराणिक मान्यता है कि द्वारका में एक बार श्री सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा, तब भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें रथ पर बैठाकर नगर का भ्रमण कराया। इसी घटना की याद में हर साल तीनों देवों को रथ पर बैठाकर नगर के दर्शन कराए जाते हैं।


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