धर्मशास्त्रों में इसे जगन्नाथपुरी के अतिरिक्त शाक क्षेत्र, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र, नीलांचल, और नीलगिरि, भी कहा जाता है।यहां देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं और इसे प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से भी जाना जाता था। जहां जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड और अन्य कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था।
कहा जाता है। प्राचीन समय में यहां नीलांचल पर्वत था जहां देवतागण नीलमाधव भगवान की पूजा किया करते थे। नीलांचल पर्वत के धरती में समा जाने के बाद उनकी मूर्ति को देवतागण यहां इस स्थान पर ले आये किन्तु यह स्थान नीलांचल के नाम से ही जाना गया। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं।
पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहां भगवान राम का रूप माना गया है। सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है। इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।जगन्नाथ जी के इस मंदिर को लेकर अनेक विश्वास हैं। एक कथा के अनुसार सर्वप्रथम एक सबर आदिवासी विश्वबसु ने नील माधव के रूप में जगन्नाथ की आराधना की थी। इस तथ्य को प्रमाणित बताने वाले आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में आदिवासी मूल के अनेकों सेवक हैं जिन्हें दैतपति नाम से जाना जाता है, की उपस्थिति का उल्लेख करते हैं। विशेष बात यह है कि भारत सहित विश्व के किसी भी अन्य वैष्णव मंदिर में इस तरह की कोई परम्परा नहीं है।
बेशक जगन्नाथ जी को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है लेकिन जहां तक जगन्नाथ पुरी के ऐतिहासिक महत्व का प्रश्र है, पुरी का उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत के वनपर्व में मिलता है। इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान कूर्म पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि में यथेष्ट रहा है।
यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।
आदि शंकराचार्य की आध्यात्मिक भारत यात्रा इतिहास का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक अध्याय है। इस विजय यात्रा के दौरान पुरी भी आदि शंकराचार्य का पड़ाव रहा। अपने पुरी प्रवास के दौरान उन्होंने अपनी विद्वत्ता से यहां के बौद्ध मठाधीशों को परास्त कर उन्हें सनातन धर्म की ओर आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की। शंकराचार्य जी द्वारा यहां गोवर्धन पीठ भी स्थापित की गई। इस पीठ के प्रथम जगतगुरु के रूप में शंकराचार्य जी ने अपने चार शिष्यों में से एक पद्मपदाचार्य (नम्पूदिरी ब्राह्मण) को नियुक्त किया था।
यह सर्वज्ञात है कि शंकराचार्य जी ने ही जगन्नाथ की गीता के पुरुषोत्तम के रूप में पहचान घोषित की थी। संभवत: इस धार्मिक विजय के स्मरण में ही श्री शंकर एवं पद्मपाद की मूर्तियां जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन में स्थापित की गईं थीं। मंदिर द्वारा ओडिशा मे प्रकाशित अभिलेख मदलापंजी के अनुसार पुरी के राजा दिव्य सिंहदेव द्वितीय (1763 से 1768) के शासनकाल में उन दो मूर्तियों को हटा दिया गया था।
12वीं सदी में पुरी में श्री रामानुजाचार्य जी के आगमन और उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा चोलगंग देव जिसके पूर्वज 600 वर्षों से परम महेश्वर रहे, उनकी आसक्ति वैष्णव धर्म के प्रति हो गई। तत्पश्चात अनेक वैष्णव आचार्यों ने पुरी को अपनी कर्मस्थली बनाकर यहां अपने मठ स्थापित किए और इस तरह पूरा ओडिशा ही धीरे-धीरे वैष्णव रंग में रंग गया।
एक अन्य कथा के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में जगन्नाथ जी के दर्शन हुए और निर्देशानुसार समुद्र से प्राप्त काष्ठ (काष्ठ को यहां दारु कहा जाता है) से मूर्तियां बनाई गईं। उस राजा ने ही जगन्नाथ पुरी का मंदिर बनवाया था जबकि ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार पुरी के वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वीर राजेन्द्र चोल के पौत्र और कङ्क्षलग के शासक अनंतवर्मन चोड्गंग (1078-1148) ने करवाया था। 1174 में राजा आनंग भीम देव ने इस मंदिर का विस्तार किया जिसमें 14 वर्ष लगे। वैसे मंदिर में स्थापित बलभद्र जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियों का पुनर्निर्माण 1863, 1939, 1950, 1966 तथा 1977 में भी किया गया था।
मान्यता है की पूर्व में भगवान नीलमाधव स्वयं नीलांचल पर्वत पर निवास करते थे। इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति थी। एक बार राजा इंद्रद्युम्न जब यहां पर भगवान के दर्शन हेतु आये तब भगवान नीलमाधव अचानक अदृश्य हो गए। राजा के विशेष प्रार्थ्रना करने पर एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो।
राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे।
राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी।
सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं।
राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।
जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे।
भगवान ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देते हुए बताया कि अब वे आज से काष्ठ की मूर्ति में ही प्रकट होकर दर्शन दिया करेंगे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।
गंगवंश के प्राप्त ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण कार्य कलिंग के राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने प्रारम्भ किया था तथा मंदिर के जगमोहन और विमान भाग का निर्माण उनके शासनकाल सन् 1078-1148 में पूर्ण हो गया था। पुनः सन् 1197 ई ० में ओडिशा के शासक अनङ्गभीम देव ने इसे वर्तमान रूप प्रदान किया। मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी की पूजा सन् 1558 ई ० तक निरन्तर होती रही किन्तु इसी समय अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर आक्रमण कर दिया जिसके फलस्वरूप मूर्तियां व मंदिर का कुछ भाग नष्ट हो गया था और पूजा भी बंद हो गई थी। बाद में रामचंद्र देवके खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर मंदिर का नवनिर्माण कराया गया और उसमें मूर्तियों की पुनर्स्थापना की गई। वैष्णव पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी में काफी दिनों तक प्रवास किया था।
पांच पांडव भी अज्ञातवास के दौरान भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने आए थे। श्री मंदिर के अंदर पांडवों का स्थान अब भी मौजूद है। भगवान जगन्नाथ जब चंदन यात्रा करते हैं तो पांच पांडव उनके साथ नरेन्द्र सरोवर जाते हैं।
कहते हैं कि ईसा मसीह सिल्क रूट से होते हुए जब कश्मीर आए थे तब पुन: बेथलेहम जाते वक्त उन्होंने भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए थे।
महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह, ने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था।
महाराजा रणजीत सिंह,ने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी कि विश्व में अबतक भी सबसे मूल्यवान और सर्वाधिक बड़ा कोहिनूर हीरा में इस मंदिर को दान करूँगा। लेकिन यह सम्भव ना होसका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके , उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।
भगवान् जगन्नाथ(श्रीकृष्ण) उनके के साथ भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा तीनों की ये मूर्तियां काष्ठ की बनी हुई हैं। इन मूर्तियों की पूजा नहीं होती, केवल दर्शनार्थ रखी गई हैं। इन मूर्तियों का स्वरूप हर 12 साल बाद बदल दिया जाता है।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप स्थित था और उस स्तूप में भगवान बुद्ध का एक दांत रखा गया था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुंचा दिया गया।7वीं सदी में इंद्रभूति ने बौद्ध धर्म के बज्रायन परम्परा के आरंभ से पुरी के बारे में कुछ प्रमाणित जानकारी मिलती है। उसके बाद पुरी वज्रायन परम्परा का पूर्व भारत में एक बड़ा केंद्र बन गया था।
वज्रायन के संस्थापक इंद्रभूति ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ज्ञानसिद्धि में जगन्नाथ का उल्लेख किया है जिससे यह संकेत मिलता है कि उन दिनों जगन्नाथ का संबोधन गौतम बुद्ध के लिए भी किया जाता था। उस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज चल रहा था। कुछ का मत है कि जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा वास्तव में बौद्ध धर्म के बुद्ध, संघ और धम्म के प्रतीक हैं। 15 से 17वीं सदी के ओडिया साहित्य में भी लगभग यही मत ध्वनित होता है।
मंदिर के पश्चिम दिशा में है बेड़ी हनुमान मंदिर। यह जंजीर से बंधा एक हनुमान मंदिर है और समुद्र तट के नजदीक स्थित एक छोटा सा मंदिर है जो पुरी के चक्र नारायण मंदिर की पश्चिम दिशा की ओर बना है। इसे दरिया महावीर मंदिर भी कहा जाता है। दरिया का अर्थ होता है समुंद्र जो महावीर भगवान हनुमान का दूसरा नाम है। यह वर्णन कुछ पुराणों में भी मिलता है कि पुरी धाम की सदियों से रक्षा भगवान हनुमान करते है क्योंकि यह जिम्मेदारी उन्हें भगवान जगन्नाथ ने सौंपी है।
श्री जगन्नाथ मंदिर के उत्तरी भाग में भी हनुमान महाप्रभु के रक्षक के रूप में विराजमान है। भगवान हनुमान के इस स्वरूप को चारी चक्र और अष्ठ भुजा हनुमान कहते हैं। चारी चक्र का मतलब हुआ कि हनुमान सुरक्षा की खातिर चार चक्र को धारण करते हैं। अष्ठ भुजा यानी वो हनुमान जो आठ भुजाओं से युक्त हैं। हनुमान जी के चार हाथ में सुदर्शन चक्र, 2 हाथ प्रणाम की मुद्रा में और 2 हाथ से तालियां बजाते हुए वह भगवान जगन्नाथ के नाम की निरंतर स्तुति करते हैं। इसी प्रकार बाकी दो दिशाओं में भी भगवान हनुमान का यहां प्राचीण मंदिर है जो महाप्रभु के रक्षक के रुप में विराजमान है।माना जाता है कि 3 बार समुद्र ने श्री जगन्नाथ के मंदिर को तोड़ दिया था। कहते हैं कि महाप्रभु जगन्नाथ ने वीर मारुति (हनुमानजी) को यहां समुद्र को नियंत्रित करने हेतु नियुक्त किया था, परंतु जब-तब हनुमान भी जगन्नाथ-बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शन के लिए नगर में प्रवेश कर जाते थे, ऐसे में समुद्र भी उनके पीछे नगर में प्रवेश कर जाता था।
हनुमानजी की इस आदत से परेशान होकर जगन्नाथ महाप्रभु ने हनुमानजी को यहां स्वर्ण बेड़ी से आबद्ध कर दिया। तब से हनुमानजी करते हैं श्री जगन्नाथ की समुद्र से रक्षा, यहां जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। भक्त लोग बेड़ी में जगड़े हनुमानजी के दर्शन करने के लिए आते हैं।
जगन्नाथ का पहला नाम नीलमाधव है तो बलभद्र और शुभद्रा का पहला नाम क्या है
जगनाथ मंदिर के मुति का रहसय